रविवार, 13 सितंबर 2015

कागज के टुकड़ों सा मन.......



कागज के टुकड़ों सा 
कभी कभी
बिखरता है मन...!
उड़ता जाता है
कितनी ही ऊंचाइयों को
छूता जाता है
हवा की लहरों के संग
कितने ही सँकरे
तीखे मोड़ों से गुज़र कर
टुकड़ा टुकड़ा...
टकरा कर आपस में
छू लेता है ज़मीन को
थक हार कर....!
फिर उभरते हैं..
उसमें कुछ अक्षर...
कुछ सीधे-साधे..
कुछ टेढ़े-मेढ़े...
और फिर कागज के टुकड़े 
जुड़ने लगते हैं यक ब यक...
और कुछ ऐसी ही 
रचना आकार ले लेती है....
स्वतः ही..........!!




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